सुप्रीम कोर्ट ने दलित पिता और गैर-दलित मां के बच्चों को आरक्षण का हक देते हुए अहम फैसला सुनाया। जानिए इस ऐतिहासिक निर्णय और इसके प्रभावों के बारे में पूरी कहानी।
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम और ऐतिहासिक निर्णय सुनाया है जो दलित और गैर-दलित समुदायों के बीच विवाह के प्रभावों को लेकर महत्वपूर्ण है। कोर्ट ने एक गैर-दलित महिला और एक दलित व्यक्ति के बीच विवाह को रद्द करते हुए उनके बच्चों के आरक्षण अधिकारों पर भी फैसला सुनाया।
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस सूर्यकांत और उज्जल भुइयां की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि एक गैर-दलित महिला अपनी शादी से अनुसूचित जाति की सदस्यता नहीं प्राप्त कर सकती है, लेकिन यदि वह दलित व्यक्ति से बच्चे पैदा करती है तो उन बच्चों को एससी (अनुसूचित जाति) का हक मिलेगा। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि जाति जन्म से निर्धारित होती है, और अनुसूचित जाति के व्यक्ति से शादी करके जाति नहीं बदली जा सकती।
यह फैसला उस दंपति के मामले में आया, जिनके 11 वर्षीय बेटे और 6 वर्षीय बेटी पिछले छह वर्षों से अपनी मां के साथ रायपुर में नाना-नानी के घर रह रहे थे। सुप्रीम कोर्ट ने इन बच्चों को अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र प्राप्त करने का आदेश दिया और कहा कि बच्चों को सरकारी शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिलेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने पति को आदेश दिया कि वह छह महीने के भीतर अपने बच्चों के लिए अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करें और इसके साथ ही उनके शिक्षा संबंधी सभी खर्चों को वहन करे, जिसमें ट्यूशन फीस, बोर्डिंग और लॉजिंग खर्च भी शामिल हैं।
इस मामले में कोर्ट ने पति से एकमुश्त 42 लाख रुपये महिला को देने का भी आदेश दिया और महिला और बच्चों के भरण-पोषण के लिए एक समझौता तय किया। इसके अलावा, पति को महिला को एक दोपहिया वाहन भी खरीदकर देना होगा। कोर्ट ने पति-पत्नी के खिलाफ दर्ज क्रॉस-एफआईआर को रद्द करते हुए यह भी निर्देश दिया कि महिला बच्चों को समय-समय पर उनके पिता से मिलवाए और उनके रिश्ते को बेहतर बनाए।
यह फैसला समाज में जाति आधारित भेदभाव और आरक्षण के अधिकारों के मामले में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है, जो समानता और न्याय की दिशा में एक मजबूत संदेश देता है।
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